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Sunday 1 August 2021

नरक चतुर्दशी पूजा विधि, कथा और महत्व (Narak Chaturdashi Puja Vidhi, Katha And importance)

                  


नरक चतुर्दशी पूजा विधि, कथा और महत्व (Narak Chaturdashi Puja Vidhi, Katha And importance):-

कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी या "नरक चतुर्दशी" या रूप चतुर्दशी या छोटी दीपावली कहा जाता है। दीपावली हिंदुओं का पवित्र पर्व माना जाता है। दीपावली के एक दिन पूर्व पर्व का भी हिंदुओं के जीवन में बहुत ही महत्व माना गया है। दीपावली से एक दिन पूर्व छोटी दीपावली मनाई जाती है। 

कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी या नरक चतुर्दशी पूजा विधि:-इस दिन अरुणोदय से पूर्व प्रत्युषकाल में स्नान करने से मनुष्य को यमलोक का दर्शन नहीं करना पड़ता है। जो व्यक्ति इस दिन सूर्योदय के बाद स्नान करता हैं, उसके द्वारा किये गये सभी शुभ कार्यों का नाश हो जाता है। इस दिन देवताओं का पूजन करके दीपदान करना चाहिए।

मन्दिरों, गुप्त गृहों, रसोई घर, स्नानघर, देव वृक्षों के नीचे, सभा भवन, नदियों के किनारे, चाहरदीवारी, बगीचे, गली-मौहल्ले, गौशाला आदि प्रत्येक स्थान पर दीपक जलाना चाहिए।

यमराज के उद्देश्य से त्रयोदशी से अमावस्या तक दिप जलाने चाहिए।

रूप चतुर्दशी:-इस दिन सौन्दर्य रूप श्रीकृष्णजी की पूजा करनी चाहिए। इस दिन व्रत भी रखना चाहिए। इसी दिन नरक चतुर्दशी का भी व्रत करना चाहिए। सुबह अंधेरे-अंधेरे उठकर महिलाऐं चौकी के नीचे दीपक लगाकर रूप पाने के लिए सिर धोकर स्नान करती है। इस दिन शाम को घर के अंदर व बाहर दीपक जलाते है।

छोटी दीपावली पूजा विधि:-सूर्योदय से पहले उठकर अपनी दैनिकचर्या को पूरा करते हुए पहले आटा तेल को हल्दी में मिलाकर उबटन तैयार करना चाहिए।

उसके बाद उस उबटन को अपने शरीर पर मलकर स्नान करना चाहिए।

शाम के समय एक थाली में चहुमुखी दीपक और सोलह छोटे दीपक लेकर तेलबाती डालकर जलाना चाहिए।

फिर घर के अंदर व बाहर कोने-कोने पर दीपक को रखना चाहिए।

चहुमुखी दीपक को मुख्य द्वार पर रखना चाहिए।


राजा बलि की पौराणिक कथा:-एक समय की बात है, जब धर्मराजजी अपना राज्य हार जाते है, तो भगवान केशवजी से धर्मराजजी बहुत ही विन्रमता के भाव से पूछते- हे श्रीकेशवजी! आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताए जिसको करके मैं पुनः अपने हारे हुए राज्य को प्राप्त कर सकूं, क्योंकि मैं अपने राज्य को हर जाने के कारण बहुत ही दुःखी हूँ।

श्रीकेशवजी ने कहा- हे कौन्तेय पुत्र धर्मराज। मैं तुम्हें मेरे बहुत प्रिय भक्त राक्षसाधिराज बलि के बारे में बताता हूँ। राजा बलि ने सौ अश्वमेघ यज्ञ करने का एक समय संकल्प लिया। लेकिन निन्यानबे यज्ञ तो राजा बलि के बिना किसी बाधा के पूर्ण हो गए, लेकिन सौवाँ यज्ञ के पूरे होने पर अपना राज्य को छोड़ने का डर सताने लगा। जब देवताओं के राजा इंद्रदेव को डर सताने लगा कि राजा बलि ने यदि सौवाँ अश्वमेघ यज्ञ कर लिया तो मेरी इंद्रपुरी पर आक्रमण करके कहीं छीन नहीं लेवें। इस चिंता में राजा इंद्रदेव अपने साथ सभी देवताओं को लेकर क्षीरसागर में रहने वाले भगवान श्रीहरीजी के पास पहुँचे। वहां पर पहुंचकर भगवान श्रीहरीजी का वेद-मंत्रों से स्तुति करने लगे। जब भगवान विष्णु जी ने जब अपनी आंखों को खोल और देखा की सभी देवताओं के साथ इंद्रदेव भी स्तुति कर रहे है तब भगवान विष्णुजी ने पूछा-हे इंद्रदेव! आपको इन सभी देवताओं के साथ लेकर कैसे आना हुआ? 

तब इंद्रदेव बोलते है कि- हे श्रीचक्रपाणीजी! हम सब डर के मारे आपके शरण में आये है, जब इंद्रदेव ने पूरा वृत्तांत भगवान श्रीकेशवजी को बताया। 

तब भगवान श्रीहरीजी बोले-हे इंद्रदेव! तुम बिना किसी तरह का डर मत रखो। बिना किसी डर के तुम अपने इंद्रपुरी को प्रस्थान करूँ, तुम्हें चिंता करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है और मैं तुम्हारे जो भी मन बसे संकट है उनका शमन कर दूंगा। इस तरह के भगवान श्रीविष्णुजी के आश्वासन देने पर इंद्रदेव अपने लोक की ओर चल पड़े।

इंद्रदेव के जाने के बाद भगवान चक्रपाणीजी ने वामन अवतार को धारण किया और अपने बटुवेश अर्थात नाटे कद को ग्रहण करके राजा बलि के यहाँ पर चल पड़े। जब सौवाँ यज्ञ सम्पन होने पर राजा बलि सभी को दान देने लगे। 

इस तरह दान देते-देते भगवान श्रीकेशवजी के रूप में वामन रूप धारी श्रीविष्णुजी से राजा बलि ने कहा- हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! आप को दान में क्या चाहिए! तब वामन रूपधारी श्रीविष्णुजी ने कहा कि-हे राजन! यदि आप मुझे दान देने के इच्छुक है तो मुझे पहले आप वचन देवे की जो भी मैं मांगूगा वह मुझे आप देवेंगे। तब राजा बलि ने वामनदेव को वचन दे दिया।

राजा बलि ने कहा कि- हे ब्राह्मणदेव! आप मांगिए मैं अपने वचन के अनुसार आपको दूंगा। तब वामनधारी श्रीविष्णुजी ने तीन पग भूमि दान के रूप में मांगी। 

तब राजा बलि ने कहा-हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! आपकी इच्छानुसार आप तीन पग भूमि को ले लीजिए। तब भगवान वामनधारी श्रीविष्णुजी ने अपना विराटरूप प्रकट किया और एक पैर में सम्पूर्ण पृथ्वी को नाप लिया। 

दूसरे पैर से संपूर्ण अन्तरिक्षलोक को नाप लिया और कहा कि- हे राजन! तीसरे पग को कहा रखूं। तब राजा बलि ने कहा कि- हे चक्रपाणीजी जी! अपने दोनों लोको को ले लिया है अब तो मेरे पास कुछ भी नहीं है। आप से निवेदन करता हूँ कि आप तीसरा पैर मेरे सिर पर रख दीजिए। इस तरह भगवान श्रीविष्णुजी ने राजा बलि से तीन पग भूमि के रूप में प्राप्त की और राजा बलि की दानशीलता से खुश होकर कहा- हे राजन! मैं तुम्हारी दानशीलता से बहुत ही खुश हूं। तुम कोई भी वरदान मांगों।

राजा बलि ने कहा- हे श्रीहरीजी! आप मुझे ऐसा वरदान देवे की कार्तिक कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि से अमावस्या तिथि तक अर्थात दीपावली तक इस भूमिलोक पर मेरा राज्य रहे। इन तीन दिनों तक सभी लोग दिप-दान कर लक्ष्मीजी की पूजा करे और जो इन तीन दिनों में दिन दान करके लक्ष्मीजी की पूजा करने वाले के घर में लक्ष्मीजी का निवास रहे। इस तरह भगवान श्रीविष्णुजी ने राजा बलि को अपनी इच्छानुसार वरदान देकर और राजा बलि को पातालपुरी का राज्य देकर राजा बलि को पाताललोक में भेज दिया। उसी समय से देश के सम्पूर्ण नागरिक इस पुनीत पवन दीपावली पर्व को मनाते चले आ रहे है। इसलिए इस पर्व को सभी प्राणियों को सद्भावनापूवर्क मनाना जरूरी ही नहीं बल्कि अनिवार्य भी है।



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