वंश वृद्धिकरं दुर्गा कवचम् (Vansh Vriddhi karam Durga kavacham):-हमारे पुराने समय के ऋषि-मुनियों को बहुत कुछ पहले ही ज्ञात था कि मनुष्य को अपने परिवार के कुल की सुरक्षा कैसे करे और अपने परिवार के वंश कैसे आगे बढ़ा सकते है। इसलिए उन्होंने बहुत सारे यज्ञ हवन और देवी-देवताओं की स्तुति की उनके स्तुत की रचना की उन स्तुति मन्त्रों में इतनी शक्ति थी जो मनुष्य उन स्तुति मन्त्रों का अच्छी तरह से पाठ करते तो उनके वंश की रक्षा हो जाती थी। उन पर जिस देवी-देवताओं के सम्बन्धित स्त्रोत होता था वे देवी-देवता अपनी कृपा दृष्टि बनाकर रखते थे। इसलिए कहा जाता है की मन्त्रों बहुत शक्ति होती है राजा से रंक और रंक से राजा बना सकते है। लेकिन उन मन्त्रों के सही तरीके और अपनी अच्छी भावना से पाठ करने पर अच्छे फल की प्राप्ति होती है।
माता दुर्गाजी की आराधना करके और उनको पूजा से खुश करना चाहिए। जिससे उनकी की कृपा दृष्टि मनुष्य की जीवन पर बनी रहे और माता दुर्गाजी का आशीर्वाद प्राप्त हो जावे। इसलिए मनुष्य को अपने पारिवारिक जीवन में वंश को बढ़ाने के लिए उनका वृद्धिकरं दुर्गाकवचम् का नियमित रूप से जाप करने से फायदा मिलता हैं, जिनके सन्तान होने के बाद कुछ दिवस तक जीवित रहती है या जिनके सन्तान होने में देरी होती हैं या जिनके बार-बार गर्भपात हो जाता हैं। उन स्त्रियों को माता दुर्गाजी का वृद्धिकरं दुर्गाकवचम् का जप करना चाहिए जिससे उनके परिवार की वंश की बढ़ोतरी हो सके।
जिनको अपने वंश परम्पराओ को आगे बढ़ाना होता हैं, उनको पुत्रदा एकादशी के दिन वंश वृद्धिकरं दुर्गाकवचम् का गयारह अथवा इक्कीस बार इस पाठ को पढ़ने से अवश्य ही वंश या कुल की वृद्धि होती है। माता दुर्गाजी की अनुकृपा से पूरे कुटुम्ब में दयाभाव और श्रद्धा भाव रखने वाली भक्त रूपी सन्तान की प्राप्ति होती है। इसलिए वंश वृद्धिकरं दुर्गाकवचम् का पाठ करने से फायदा मिलता है।
प्रत्येक मनुष्य अपने परिवार में सुख-शांति चाहते है, वे अच्छी सन्तान की चाहत रखते है जिससे उनका वंश चल सके और अपने कुल वंश का नाम संसार में दिये कि रोशनी के समान जगमगाता रहे। इसलिए अपने परिवार के कुल को आगे बढ़ने के लिए और सभी तरह की बुरी शक्तियों से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य हमेशा प्रयास करते रहे हैं।
।।अथ वंश वृद्धिकरं दुर्गाकवचम् का पाठ।।
भगवन् देव देवेशकृपया त्वं जगत् प्रभो।
वंशाख्य कवचं ब्रूहि मह्यं शिष्याय तेऽनघ।
यस्य प्रभावाद्देवेश वंश वृद्धिर्हिजायते॥१॥
॥सूर्य ऊवाच॥
शृणु पुत्र प्रवक्ष्यामि वंशाख्यं कवचं शुभम्।
सन्तानवृद्धिर्यत्पठनाद्गर्भरक्षा सदा नृणाम्॥२॥
वन्ध्यापि लभते पुत्रं काक वन्ध्या सुतैर्युता।
मृत वत्सा सुपुत्रस्यात्स्रवद्गर्भ स्थिरप्रजा॥३॥
अपुष्पा पुष्पिणी यस्य धारणाश्च सुखप्रसूः।
कन्या प्रजा पुत्रिणी स्यादेतत् स्तोत्र प्रभावतः॥४॥
भूतप्रेतादिजा बाधा या बाधा कुलदोषजा।
ग्रह बाधा देव बाधा बाधा शत्रु कृता च या॥५॥
भस्मी भवन्ति सर्वास्ताः कवचस्य प्रभावतः।
सर्वे रोगा विनश्यन्ति सर्वे बालग्रहाश्च ये॥६॥
॥अथ दुर्गा कवचम्॥
ॐ पुर्वं रक्षतु वाराही चाग्नेय्यां अम्बिका स्वयम्।
दक्षिणे चण्डिका रक्षेन्नैऋत्यां शववाहिनी॥१॥
वाराही पश्चिमे रक्षेद्वायव्याम् च महेश्वरी।
उत्तरे वैष्णवीं रक्षेत् ईशाने सिंह वाहिनी॥२॥
ऊर्ध्वां तु शारदा रक्षेदधो रक्षतु पार्वती।
शाकंभरी शिरो रक्षेन्मुखं रक्षतु भैरवी॥३॥
कन्ठं रक्षतु चामुण्डा हृदयं रक्षतात् शिवा ।
ईशानी च भुजौ रक्षेत् कुक्षिं नाभिं च कालिका॥४॥
अपर्णा ह्युदरं रक्षेत्कटिं बस्तिं शिवप्रिया।
ऊरू रक्षतु कौमारी जया जानुद्वयं तथा॥५॥
गुल्फौ पादौ सदा रक्षेद्ब्रह्माणी परमेश्वरी।
सर्वाङ्गानि सदा रक्षेद्दुर्गा दुर्गार्तिनाशनी॥६॥
नमो देव्यै महादेव्यै दुर्गायै सततं नमः।
पुत्रसौख्यं देहि देहि गर्भरक्षां कुरुष्व नः॥७॥
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं श्रीं ऐं ऐं ऐं
महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती रुपायै
नवकोटिमूर्त्यै दुर्गायै नमः॥८॥
ह्रीं ह्रीं ह्रीं दुर्गार्तिनाशिनी संतानसौख्यम् देहि देहि
बन्ध्यत्वं मृतवत्सत्वं च हर हर गर्भरक्षां कुरु कुरु
सकलां बाधां कुलजां बाह्यजां कृतामकृतां च नाशय
नाशय सर्वगात्राणि रक्ष रक्ष गर्भं पोषय पोषय
सर्वोपद्रवं शोषय शोषय स्वाहा॥९॥
॥फल श्रुतिः॥
अनेन कवचेनाङ्गं सप्तवाराभिमन्त्रितम्।
ऋतुस्नात जलं पीत्वा भवेत् गर्भवती ध्रुवम्॥१॥
गर्भ पात भये पीत्वा दृढगर्भा प्रजायते।
अनेन कवचेनाथ मार्जिताया निशागमे॥२॥
सर्वबाधाविनिर्मुक्ता गर्भिणी स्यान्न संशयः।
अनेन कवचेनेह ग्रन्थितं रक्तदोरकम्॥३॥
कटि देशे धारयन्ती सुपुत्रसुख भागिनी।
असूत पुत्रमिन्द्राणां जयन्तं यत्प्रभावतः॥४॥
गुरूपदिष्टं वंशाख्यम् कवचं तदिदं सुखे।
गुह्याद्गुह्यतरं चेदं न प्रकाश्यं हि सर्वतः॥५॥
धारणात् पठनादस्य वंशच्छेदो न जायते।
बाला विनश्यंति पतन्ति गर्भास्तत्राबलाः कष्टयुताश्च वन्ध्याः॥६॥
बाल ग्रहैर्भूतगणैश्च रोगैर्न यत्र धर्माचरणं गृहे स्यात्॥
॥इति श्री ज्ञान भास्करे वंश वृद्धिकरं वंश कवचं॥
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