संतोषी माता व्रत पूजन विधि (Santoshi Mata vrat pujan vidhi):-माता संतोषी का व्रत करके अपने जीवन में आ रहे सभी तरह की बाधाओं, मुसीबतों जीवन में आ रहे संकष्टो से मुक्ति पा सकते है। संतोषी माता का व्रत पूर्णरूप से पूरी आस्था के एवं विश्वासपूर्वक करने से मन की समस्त इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है।
संतोषी माता के व्रत की विधि:-संतोषी माता के व्रत को पूर्ण श्रद्धा से करना चाहिए और जो निम्नांकित विधि है उस विधि को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए
◆माता संतोषी का व्रत किसी भी महीने के शुक्लपक्ष में आने वाले शुक्रवार से शुरू कर सकते है। संतोषी माता का व्रत अपने मन में इच्छा के अनुसार 11, 21, 31, 41, 51 आदि के क्रम में कर सकते हैं।
◆सवा रुपये का गुड़-चना लेना, इच्छा हो तो सवा पांच रुपये का लेना या सवा ग्यारह रुपये का सहुलियत अनुसार लेना। बिना परेशानी, श्रद्धा और प्रेम से जितना बन सके उसका सवाया लेना। सवा रुपये से सवा पांच रुपये तथा इससे भी ज्यादा शक्ति और भक्ति अनुसार लेना।
◆हर शुक्रवार को निराहार रहकर कहानी कहना। इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करनां सुनने वाला कोई नहीं मिले तो घी का दीपक जलाकर, उसके आगे जल के पात्र को रखकर कहानी कहना।
◆परन्तु नियम न टूटे। जब तक कार्य सिद्ध न हो, नियम पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर ही व्रत का उद्यापन करना।
◆तीन मास में माता फल पूरा करती है। यदि किसी के खराब ग्रह हो तो भी माता एक वर्ष में अवश्य कार्य को सिद्ध करती है।
◆कार्य सिद्धि होने पर ही उद्यापन करना चाहिए। बीच में नहीं।
◆उस दिन घर में कोई खटाई न खावे।
◆इस व्रत को करने वाला कथा कहते समय व सुनते समय हाथ में गुड़ व भुने हुए चने रखना चाहिए।
◆सुनने वाला संतोषी माता की जय। संतोषी माता की जय। मुख से बोलते जायें।
◆कथा समाप्त होने पर हाथ का गुड़ चना सबको प्रसाद के रूप में बांटना चाहिए।
◆कथा से पूर्व एक तांबे के कलश में जल को भरके रखना चाहिए, उस कलश के ऊपर एक कटोरा रखना चाहिए।
◆कथा समाप्त होने और आरती होने के बाद कलश के जल को घर में सब जगह छिड़के और बचा हुआ जल तुलसी की क्यारी में डाल देवें।
संतोषी माता के व्रत की उद्यापन विधि:-व्रत का उद्यापन करते समय अढ़ाई सेर खाजा, खीर-पुड़ी, चने की सब्जी, नैवेद्य रखना चाहिए।
◆घी का दीपक जलाकर संतोषी माता की जय जयकार बोलकर नारियल बदारना या चढ़ाना चाहिए।
◆इस दिन घर में कोई खटाई नहीं खाना चाहिए और न किसी दूसरे को खाने देना चाहिए।
◆इस दिन आठ लड़कों को भोजन करना चाहिए।
◆देवर, जेठ, घर कुटुम्ब के लड़के मिलते हो तो दूसरे को नहीं बुलाना चाहिए।
◆कुटुम्ब में नहीं मिलने पर ब्राह्मणों के रिश्तेदारों या पड़ौसियों के लड़के को बुलाकर भोजन करना चाहिए। उन्हें खटाई की कोई वस्तु नहीं देनी चाहिए और भोजन करवाने के बाद यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिए।
संतोषी माँ व्रत कथा:-बहुत समय पूर्व एक गाँव था, गाँव का नाम श्री रंगपुर था। उस श्री रंगपुर गाँव में एक बूढ़ीया औरत निवास करती थी। उस बूढ़ीया औरत के सात बेटे थे। छः लड़के तो कमाते थे और एक लड़का निकम्मा था। उस बूढ़ी औरत ने अपने सभी सात बेटों का विवाह करवा दिया था। घर में सात बेटों के बहुएँ आने से घर रौनक और हरा-भरा लगता था। माँ को तो अपने सभी सातो बेटों से समान स्नेह होना चाहिए। सब लड़के समान होने चाहिए। लेकिन उस बुढ़िया को बड़े लड़कों पर अधिक स्नेह था। लेकिन सातवें लड़के पर थोड़ा भी स्नेह नहीं रखती थी। सौतेले पुत्र की तरह ही उसके साथ व्यवहार करती थी। जब रसोई तैयार हो जाती तब बुढ़िया अपने बड़े छः लड़को को खाने के लिए पहले बुलाती और उनको भोजन के बिठा दिया करती थी, उनको अच्छी तरह खाना खिलाती थी और उनकी थाली में जो जूठन बचती थी उस जूठन को एकत्रित करके एक थाली में रखकर छोटे पुत्र को खाने को देती थी।परन्तु गोरधन बहुत ही भोला-भाला था। मन में कुछ भी विचार नहीं करता था। छोटे पुत्र गोरधन को इस विषय में जानकारी नहीं थी, इसलिए उसकी मां जो उसे देती थी, वह आनन्द से खा लेता था। मगर उस छोटे पुत्र की बहू बहुत ही चतुर व होशियार थी। बुढ़िया के द्वारा इस तरह का भेदभाव का पता चल जाता है। उसने यह बहुत दिन तक देखा, फिर उसका मन बड़ा दुःखी हो गया। यह तो बहुत बुरी बात है!अपनी कोख के पुत्र के साथ ऐसा व्यवहार क्या एक मां को शोभा देता है उसने मन ही मन में विचार करने लगी? एक दिन अपनी बहू से बोला- देखो! मेरी माता का मुझ पर कितना प्यार है। वह बोली- क्यों नहीं? उसे उस दिन मौका देखकर उसने अपने पति से वह बात कही अगर मैं एक बात बताऊँ, तो आप मुझ पर गुस्सा तो नहीं करोगे ना! नहीं रे, सच्ची बात पर मैं क्रोध करने वाला नहीं, बता क्या बात हैं? यह आपकी माता आपको हर रोज आपके भाइयों की जूठन खिलाती है। क्या इस बात का आपको पता है? इस तरह भोले स्वभाव के कब तक रहोगे ? जहाँ इस तरह भेदभाव हो, वहाँ एक पल भी कैसे रह सके ? यह बात मैं मान नहीं सकता। अगर ऐसा है, तो कल मैं प्रत्यक्ष दिखाउँगी मां के अवगुणों का पता तब आपको चलेगा ? दूसरे दिन बुढ़िया ने छः बड़े पुत्रों को रसोई घर में भोजन करने बिठाया, तब वह छोटा पुत्र बगल वाले कमरे में दरवाजे के पीछे छिपकर दरार से रसोईघर में देखने लगा। आज लावसी बनाई थी इसलिए बुढ़िया ने आग्रह करके छः पुत्रों को प्यार से खिलाई। उनके भोजन कर लेने के बाद छः के भोजन थाल में बचिसुखी चीजें इकठी करके एक थाल में रखी। छोटा पुत्र यह सब देखकर समझ गया कि बहू का कहना सच है। अभी मां भोजन के लिए बुलावेगी और अगर यह थाल मेरे आगे रखे तो मुझे खाना नहीं है। ऐसा निर्णय करके वह दूसरे कमरे में चला गया उसी समय बुढ़िया ने आवाज दी - "बेटा गोरधन ! भोजन के लिए चल, थाली परोस दी !" गोरधन रसोईघर में आया। मां पर बहुत गुस्सा आया हुआ था, मगर मां का मन दुःखी न होवे इसलिए वह गंभीर हो गया। बेटा ! खड़ा क्यों हैं ? खाने को बैठ जा।" बुढ़िया ने जूठा प्यार जताते हुए कहा।
मां आज पेट दुःखता है, इसलिए कुछ खाना नहीं हैं। ऐसा कहकर गोरधन अपनी पत्नी गंगा के पास गया और बोला - "तेरी बात सच्ची है। अब इस घर में मुझे रहना नहीं चाहिए। जहां आदर न हो, वहां सुवर्ण का कौर भी निकम्मा है। मैं आज ही वहाँ से किसी भी अन्य स्थान पर नसीब आजमाने को निकल पडूंगा। उसी समय बुढ़िया ने गंगा को आवाज दी और कहाँ, बहू बातें कम करो, अभी बहुत दिन है, पहले गोबर थाप दो। गंगा तुरन्त ही घर के पीछे के अहाते में जाकर गोबर थापने लगा। इस ओर वह छोटा लड़का गोरधन दूसरे गांव जाने को कपड़े पहनकर तैयार हो गया। घर में किस दूसरे की अनुमति उसे लेनी न थी क्योंकि सगाई और रिश्ते में कितनी मिठाश है, वह तो उसने देख ली थी। घर के पिछले दरवाजे से वह अहाते में गया और गंगा को उपले थापती रोककर कहा "मैं अभी जाता हूँ।
तू यहां सुख-दुःख से दिन काटना। जब मैं ठिकाने लगूंगा, तब तुझे लेने को आऊंगा" इतना कहते-कहते उसकी आँखों में आंसू छलछला आये। गंगा ने रोते-रोते कहा- "आपके बिना मुझे चैन नहीं होगा। यहां मुझे दुःख होगा, तो मैं किसके आगे हृदय का भार हल्का करूंगी ?फिर भी आप खुशी से जाना...मगर जाने के बाद मुझे भूलना नहीं...? गोरधन ने हाथ की उँगली से पान के आकार की स्वर्ण की अँगूठी निकालकर गंगा की उँगुली में पहना दी और बोला, यह मेरी निशानी तेरे पास होगी इससे तुझे अकेलापन नहीं लगेगा। अब तू भी अपनी ओर से निशानी में कुछ दें। यह मेरी निशानी ऐसा कहकर गंगा ने गोबर वाले हाथ का निशान गोरधन के कुर्ते के पीछे के भाग पर लगा दिया और गोरधन भारी हृदय से वहां से चल निकला।
दूसरे दिन दुपहर को गोरधन माधवपुर नाम के एक शहर में आ पहुंचा। वहां उसके नौकरी की तलाश की तो एक बनिये सेठ के यहां उसे
चलते-चलते दूर देश में पहुँचा। वहां पर एक साहूकार की दुकान थी। वहां जाकर कहने लगा- भाई मुझे नौकरी पर रख लो। साहूकार को जरूरत थी। बोला- रह जा। लड़के ने पूछा- तनख्वाह क्या दोगे ? साहूकार ने कहा- काम देखकर दाम मिलेगा। साहूकार की नौकरी मिली। वह सवेरे सात बजे से रात तक नौकरी करने लगा। कुछ दिनों में दुकान का सारा लेन-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना, सारा काम करने लगा। साहूकार के सात-आठ नौकर थे। वे चक्कर खाने लगे कि यह तो बहुत होशियार बन गया हैं। सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में उसे आधे मुनाफे का साझेदार बना लिया। वह बारह वर्ष में ही प्रसिद्ध सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस पर छोड़कर बाहर चले गये। अब बहू पर क्या बीती जो सुनो। सास-ससुर उसे दुःख देने लगे। सारी गृहस्थी का काम करके उसे लकड़ी लेने के लिए जंगल भेजते थे। इस बीच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती, उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती थी और फूटे हुए नारियल के खोपरे में पानी। इस तरह दिन बीतते रहे। एक दिन वह लकड़ी लेने के लिये जा रही थी कि रास्ते में बहुत सी स्त्रियां संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दी। वह वहां खड़ी होकर कथा सुनकर बोली- बहिनों! यह तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने से क्या फल मिलता हैं? इस व्रत के करने की क्या विधि है? यदि तुम अपने व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी तो मैं तुम्हारा अहसान मानुंंगी। तब उनमें से एक स्त्री बोली- सुनो! यह संतोषी माता का व्रत है। इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता हैं और लक्ष्मी आती है। मन की सभी तरह की चिंताऐं दूर होती है। घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता और शांति मिलती है। निःपुत्र को पुत्र मिलता है। प्रीतम बाहर गया हो तो जल्दी आते है। कुंआरी कन्या को मनपसन्द वर मिलता है, राजद्वार में बहुत दिनों से मुकदमा चलता हो तो वह खत्म हो जाता है, सब तरह सुख-शांति हो, घर में धन जमा हो, पैसे-जायदाद का लाभ हो, रोग दूर हो जाये तथा जो कुछ मन में कामना हो, वें सब संतोषी माता की कृपा से पूरी हो जाती है। इसमें संदेह नहीं। वह पूछने लगी कि यह व्रत कैसे किया जाता है, यह भी बताओ तो बड़ी कृपा होगी। स्त्री कहने लगी- सवा रुपये का गुड़-चना लेना, इच्छा हो तो सवा पांच रुपये का लेना या सवा ग्यारह रुपये का सहुलियत अनुसार लेना। बिना परेशानी, श्रद्धा और प्रेम से जितना बन सके उसका सवाया लेना। सवा रुपये से सवा पांच रुपये तथा इससे भी ज्यादा शक्ति और भक्ति अनुसार लेना। हर शुक्रवार को निराहार रहकर कहानी कहना। इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करनां सुनने वाला कोई नहीं मिले तो घी का दीपक जलाकर, उसके आगे जल के पात्र को रखकर कहानी कहना। परन्तु नियम न टूटे। जब तक कार्य सिद्ध न हो, नियम पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर ही व्रत का उद्यापन करना। तीन मास में माता फल पूरा करती है। यदि किसी के खराब ग्रह हो तो भी माता एक वर्ष में अवश्य कार्य को सिद्ध करती है। कार्य सिद्धि होने पर ही उद्यापन करना चाहिए। बीच में नहीं। उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा अढ़ाई सेर खीर तथा चने की सब्जी बनाना। आठ लड़कों को भोजन करवाना, जहां तक मील देवर-जेठ, भाई-बन्धु, कुटुम्ब के लड़के लेना, न मिले तो रिश्तेदारों और पड़ौसियों के लड़के बुलाकर उन्हें भोजन करवाना। यथाशक्ति दक्षिणा देकर माता का नियम पूरा करना। उस दिन घर में कोई खटाई न खावे। यह सुनकर बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी। रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना लेकर माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देखकर पूछने लगी कि यह मंदिर किसका हैं? सब कहने लगे कि संतोषी माता का मंदिर है। यह सुनकर माता के मंदिर में जाकर माता के चरणों में लूटने लगी। दीन होकर विनती करने लगी- माँ! मैं निपट मूर्ख हूँ। व्रत के नियम कुछ नहीं जानती। मैं बहुत दुःखी हूँ। हे माता जगजननी! मेरा दुःख दूर कर मैं तेरी शरण में आई हूँ, माता को दया आई। एक शुक्रवार बिता की दूसरे शुक्रवार को इसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा भी आ पहुंचा। यह देखकर जेठानी मुँह सिकोड़ने लगी। इतने दिनों में पैसा आया, इसमें क्या बढ़ाई है। जेठुते ताने देने लगे- काकी के पास अब पत्र आने लगे। रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी। अब तो काकी बुलाने से भी नहीं बोलेगी। बेचारी सरलता से कहती- भैया! पत्र आए, रुपया आए तो हम सबके लिए अच्छा है। ऐसा कहकर आंखों में आंसू भरकर संतोषी माता के मंदिर में आकर मातेश्वरी के चरणोंमें गिरकर रोने लगी। माँ! मैंने तुमसे पैसा नहीं मांगा। मुझे पैसे से क्या काम है? मुझे तो मेरे सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा मांगती हूँ। तब माता प्रसन्न होकर कहा- जा बेटी, तेरा स्वामी आएगा। यह सुनकर खुशी से बावली होकर घर में जाकर काम करने लगी। अब संतोषी माँ विचार करने लगी- इस भोली पुत्री से मैंने कह तो दिया तेरा पति आएगा, लेकिन आएगा कहां से? वह तो स्वप्न में भी इसे याद नहीं करता है। उसे याद दिलाने के लिए मुझे जाना पड़ेगा। इस तरह माता साहूकार के पास जाकर स्वप्न में प्रकट होकर कहने लगी- साहूकार के बेटे! सोता है या जागता है? वह बोला- माता सोता भी नहीं हूँ, जागता भी नहीं हूँ। बीच में हूँ, कहो क्या आज्ञा है? माँ कहने लगी कि तेरा घर बार कुछ है या नहीं? वह बोला- मेरा सब कुछ है माता। मां-बाप, भाई-बहिन, बहू क्या कमी है? माँ बोली- भोले पुत्र तेरी स्त्री घोर कष्ट उठा रही है। मां-बाप उसे दुःख दे रहे हैं, वह तेरे लिए तरस रही है। तुम उसकी सूचना लो। वह बोला- हाँ माता! यह तो मुझे मालूम है, परन्तु मैं जाऊं कैसे? परदेश की बात है। लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने रास्ता नजर नहीं आता है, कैसे चला जाऊं? माँ कहने लगी-मेरी बात मानकर सुबह नहा-धोकर संतोषी माता का नाम लेकर घी का दीपक जलाकर दण्डवत करके दुकान पर जाकर बैठना। देखते-देखते तेरा लेन-देन सब चूक जायेगा। जमा माल बिक जाएगा। सांझ होते-होते धन का ढ़ेर लग जायेगा। सुबह बहुत जल्दी उठकर उसने लोगों से अपने सपने की बात कही तो वे सब उसकी बात अनसुनी कर दिल्लगी उड़ाने लगे। कहीं सपने भी सच होते हैं क्या? एक बूढ़ा बोला-देख भाई मेरी बात मान इस प्रकार सच-झूठ करने के बदले देवता ने जैसा कहा है, वैसा ही करने में तेरा क्या जाता है? वह बूढ़े की बात मानकर स्नान करके संतोषी माँ को दण्डवत कर घी का दीपक जलाकर, दुकान पर जाकर बैठा। थोड़ी ही देर में वह क्या देखता है कि देने वाले रुपया लाए और लेने वाले हिसाब लेने लगे। कोठे से भर समानों के खरीदकर नकद दाम में सौदा करने लगे। शाम तक धन का ढ़ेर लग गया। माता का चमत्कार देखकर प्रसन्न होकर मन में माता का नाम लेकर घर ले जाने के लिए गहने, कपड़े खरीदने लगा और वहां के काम से निपट कर घर के लिए रवाना हुआ। वहां बहू बेचारी जंगल में लकड़ी लेने जाती है। लौटते समय माँ के मंदिर में विश्राम करती है। वह तो रोजाना उसके रुकने का स्थान था। दूर धूल उड़ती देखकर वह माता से पूछती है- हे माता! यह धूल कैसी उड़ रही है? माँ कहती है-हे पुत्री! तेरा पति आ रहा है। अब तुम ऐसा करो कि लकड़ीयों के तीन बोझ बनाकर एक नदी के किनारे रख देना, दूसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सिर पर रख देना। तेरे पति को लकड़ी का गठ्ठा देखकर मोह पैदा होगा। वह वहां रुकेगा, नाश्ता-पानी बना हुआ खाकर माँ से मिलने जाएगा। तब तुम लकड़ीयों का बोझ उठाकर घर जाना और चौक में गठ्ठा डालकर तीन आवाजें जोर से लगाना-लो सासूजी! लकड़ियों का गठ्ठा लो, भूसी की रोटी दो और नारियल के खोपरे में पानी दो, आज कौन मेहमान आया है? माँ की बात सुनकर बहुत अच्छा माता। यह कहकर प्रसन्न होकर लकड़ियों के तीन गठ्ठे ले आई। एक दिन तट पर एक माता के मंदिर पर रखा। इतने में ही एक मुसाफिर आ पहुँचा। सुखी लकड़ी देखकर उसकी इच्छा हुई कि अब यही विश्राम करें और भोजन बनाकर खाकर गांव जाएं। इस प्रकार भोजन बनाकर खाकर विश्राम करके गांव को गया। सबसे प्रेम से मिला। उसी समय बहू सिर पर लकड़ी का गठ्ठा लिए आती है। लकड़ी का बोझ आंगन में डालकर जोर से तीन आवाजें देती हैं- लो सासुजी! लकड़ी का गठ्ठा लो। भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपरे में पानी दो। आज कौन मेहमान आया है? यह सुनकर सास बाहर आकर अपने दिए हुए कष्टों को भुलाते हुए कहती है- बहू! ऐसा क्यों कहती है, तेरा मालिक ही तो आया है। आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर कपड़े-गहने पहन। इतने में आवाज सुनकर उसका स्वामी बाहर आता है और अँगूठी देखकर व्याकुल होकर माँ से पूछता है यह कौन है? माँ कहती है कि बेटा! तेरी बहू है। आज बारह वर्ष हो गए है। तुम जब से गए हो, तब से सारे गाँव में जानवर की तरह भटकती-फिरती है। काम-काज घर का कुछ नहीं करती है, चार समय आकर खाना खाकर चली जाती है। अब तुझे देखकर भूसी की रोटी और नारियल के खोपरे में पानी मांगती है। वह लज्जित होकर बोला- ठीक है माँ! इसे भी देखा है और तुम्हें भी देखा है। अब मुझे दूसरे घर की चाबी दे तो उसमें रहूं। तब माँ बोली- ठीक है बेटा! तेरी जैसी इच्छा, कहकर चाबी का गुच्छा पटक दिया। उसने चाबी से दूसरे कमरे में जो तीसरी मंजिल के ऊपर था, वह खोलकर वहां सारा सामान जमाया। एक दिन में ही वहां राजा के महल जैसा ठाट-बाट हो गया। अब क्या था, वे दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। इतने में अगला शुक्रवार आया।बहू ने अपने पति से कहा कि मुझे माता का उद्यापन करना है। पति बोला- बहुत अच्छा, खुशी से करो। वह तुरन्त ही उद्यापन की तैयारी करने लगी। जेठ के लड़कों को भोजन के कहने गई। उसने मंजूर किया, परन्तु पीछे से जेठानी अपने बच्चों को सिखलाती है। देखों रे! भोजन के समय सब लोग खटाई मांगना, जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो। लड़के भोजन करने के लिए आए। खीर पेट भरकर खाई। परन्तु याद आते ही कहने लगे कि हमें तो खटाई दो, खीर खाना हमें भाता नहीं, देखकर अरुचि होती है। बहू कहने लगी कि खटाई किसी को नहीं दी जायेगी। यह तो संतोषी माता का प्रसाद है। लड़के तुरन्त उठ खड़े हुए, बोले पैसा लाओ। भोली बहू कुछ जानती नहीं थी, जो उन्हें पैसे दे दिये। लड़के उसी समय जा करके इमली खाने लगे। यह देखकर बहू पर संतोषी माताजी ने कोप किया। राजा के दूत उसके पति को पकड़कर ले गये। जेठ-जेठानी मनमाने खोटे वचन कहने लगे। लूट-लूटकर धन इकट्ठा कर लाया था, जो राजा के दूत पकड़कर ले गये। अब सब मालूम पड़ जायेगा। जब जेल की हवा खाएगा। बहू से वचन सेहन नहीं हुए। रोती-रोती माता के मंदिर में गई। हे माता! तुमने यह क्या किया? हँसाकर अब क्यों रुलाने लगी? माता बोली- पुत्री! तुमने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है। इतनी जल्दी सब बातें भुला दी। वह कहने लगी कि माता भूली तो नहीं हूँ, न कुछ अपराध किया है। मुझे तो लड़को ने भूल में डाल दिया। मैंने भूल में पैसे दे दिए। मुझे क्षमा कर दो माँ! माँ बोली- ऐसी भी कोई भूल होती है? वह बोली- माँ मुझे माफ कर दो माँ! मैं फिर आपका उद्यापन करूंगी। माँ बोली- अब भूल मत करना। वह बोली- जा पुत्री! तेरा पति तुझे रास्ते में आते हुआ मिलेगा। वह घर को चली। राह में पति आता हुआ मिला। उसने पूछा- तुम कहां गये थे? तब वह कहने लगा- इतना धन कमाया है, उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वह भरने गया था। वह प्रसन्न होकर बोली- भला हुआ, अब घर चलो। कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया। वह बोली-कि मुझे माता का उद्यापन करना है। पति ने कहा- करो। वह फिर जेठ के लड़कों को भोजन के लिए कहने गई। जेठानी ने तो एक-दो बातें सुनायी और लड़कों को सिखा दिया कि तुम पहले ही खटाई मांगना। लड़के कहने लगे कि हमें खीर खाना नहीं भाता, जी बिगड़ता है। कुछ खटाई खाने को देना। वह बोली- खटाई खाने को नहीं मिलेगी, आना हो तो आओ। वह ब्राह्मणों के लड़के को लाकर भोजन करवाने लगी। यथा शक्ति दक्षिणा की जगह एक-एक फल उन्हें दिया। इससे संतोषी माता प्रसन्न हुई। माता की कृपा होते ही नवमें महीने में उसका चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ। पुत्र लेकर प्रतिदिन माताजी के मंदिर में जाने लगी।माँ ने सोचा की यह रोज आती है,आज क्यों नहीं मैं ही इसके घर चलूं। इसका आसरा देखूं तो सही। यह विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया। गुड़ और चना से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होठ, उस पर मक्खियां भीन-भीना रही थी। दहलीज में पांव रखते ही उसकी सास चिल्लायी। देखो रे-कोई चुड़ैल डाकिन चली आ रही है। लड़कों इसे भगाओ। नहीं तो किसी को खा जायेगी। लड़के डरने लगे और चिल्लाकर खिड़की बन्द करने लगे। छोटी बहू रोशनदान में से देख रही थी। प्रसन्नता से चिल्लाने लगी कि आज मेरी माताजी घर आई है। यह कहकर बच्चे को दूध पिलाने से हटाती है। इतने में सास का क्रोध फुट पड़ा। वह गाली बोलकर कहने-लगी कि इसे देखकर कैसी उतावली हुई है जो बच्चे को पटक दिया। इतने में माँ के प्रताप से जहां देखो वहां लड़के ही लड़के नजर आने लगे। वह बोली- माँ जी! मैं जिनका व्रत करती हूँ, यह वहीं संतोषी माता है। इतना कहकर जल्दी से सारे घर के दरवाजे खोल देती है। सबने माता के चरण पकड़ लिये और विनती करके कहने लगे कि हे माता! हम मूर्ख है, हम अज्ञानी है, पानी है। आपके व्रत की विधि नहीं जानते है, तुम्हारा व्रत भंग करके हमने बहुत बड़ा अपराध किया है। हे माता! आप हमारा अपराध क्षमा करो। इस प्रकार माता प्रसन्न हुई। माता ने बहू को जैसा फल दिया वैसा सबको देना। जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो।
आपकी जय जयकार हो, संतोषी मैया।
आपकी महिमा अपार है, संतोषी मैया।।
।।जय संतोषी माता की जय।।
।।अथ श्री संतोषी माता को भोग लगाने की आरती।।
भोग लगाओ मैया संतोषी।
भोग लगाओ मैया भुवनेश्वरी।।
भोजन को जलदी आना, संतोषी मैया।
मैं तो देख रही तुम्हारी राह.....!
मैया जलदी आना!
खीर प्रेम से बनाया,
खाजा-चने का शोक अनोखा बनाया,
मैया उमंग से आना!
भक्तजनों को शुक्रवार प्यारा।
कथा श्रवण नामस्मरण है प्यारा!
मैया दर्शन देना रे!
संतोषी मैया, जलदी से आना।
।।इति श्री संतोषी माता भोग लगाने की आरती।।
।।जय बोलो संतोषी माता की जय।।
।।अथ श्री आरती संतोषी माता की जय।।
जय संतोषी माता ओ मैया जय संतोषी माता।
अपने जन को सेवक, सुख सम्पत्ति दाता।।
सुन्दर चीर सुनहरी, मां धारण कीन्हो।ओ मैया मां धारण कीन्हो।
हीरा-पन्ना दमके, तन सिंगार लीन्हो।।
गेरू लाल छटा छवि, बदन कमल सोहे।
मन्द हंसत करुणामयी, त्रिभुवन मन मोहे।।
स्वर्ण सिंहासन बैठी, चंवर ढुरे प्यारे। ओ मैया चंवर ढुरे प्यारे।
धूप, दिप, नैवेद्य मधुमेवा, भोग धरे न्यारे।।
गुड़ अरु चना परम प्रिय, तामें संतोष किया।
संतोषी कहलाई, भक्तन वैभव दियो।।
शुक्रवार प्रिय मानत, आज दिवस सोहि।
भक्त मण्डली आई, कथा सुनत मोहि।।
मंदिर जगमग ज्योति, मंगल ध्वनि छाई।
विनय करें हम बालक, चरनन सिर नाई।।
भक्ति भवमय पूजा, अंगीकृत कीजै।
जो मन बसे हमारे, इच्छा फल दीजै।।
दुःखी, दरिद्री, रोगी, संकट मुक्त किये।
बहु धन धान्य भरे घर, सुख सौभाग्य दीये।।
ध्यान धरे जो नर तेरा, मनवांछित फल पाया।
पूजा कथा श्रवण कर, घर आनन्द आयो।।
शरण गहे की लज्जा राखियों जगदम्बे।
संकट तू ही निवारे, दयामयी मां अम्बे।।
संतोषी मां की आरती जो कोई नर गावे।
ऋद्धि-सिद्धि सुख सम्पत्ति, जी भर के पावे।।
।।इति श्री संतोषी माता की आरती।।
।।जय बोलो संतोषी माता की जय।।
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