Breaking

Thursday 6 May 2021

प्रदोष व्रत पूजा विधि, कथा, उद्यापन और महत्व (pradosh vrat puja vidhi, katha, udyaapan and importance

             




प्रदोष व्रत पूजा विधि, कथा, उद्यापन और महत्व  (pradosh vrat puja vidhi, katha, udyaapan and importance) :-सांयकाल के बाद और रात्रि आने से पूर्व का जो समय है उसे प्रदोष कहते है। व्रत करने वाले को उसी समय भगवान् शंकर का पूजन करना चाहिए। प्रदोष व्रत करने वाले को त्रयोदशी के दिनदिन भर भोजन नहीं करना चाहिए । शाम के समय जब सूर्यास्त में तीन घड़ी का समय शेष रह जाए तब स्नानादि कर्मो से निवृत होकरश्वेत वस्त्र धारण करके तत्पश्चात् सन्धया- वन्दना करने के बाद शिवजी का पूजन प्रारम्भ करें।


प्रदोष व्रत कथा :-पूर्वकाल में पुत्रवती ब्राह्मणी थी। उसके दो पुत्र थे । वह ब्राह्मणी बहुत निर्धन थी । दैवयोग से उससे एक दिन महर्षि शाण्डिल्य के दर्शन हुए। महर्षि के मुख से प्रदोष व्रत की महिमा सुनकर उस ब्राह्मणी ने ऋषि से पूजन की विधि पूछी । उसकी श्रद्धा और आग्रह से ऋषि ने उस ब्राह्मणी को शिव पूजन का उपर्युक्त विधान बतलाया और उस ब्राह्मणी से कहा – तुम अपने दोनों पुत्रओं से शिव की पूजा कराओ। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हे एक वर्ष के पश्चात् पूर्ण सिद्धि प्राप्त होगी।

उस ब्राह्मणी ने महर्षि शाण्डिल्य के वचन सुनकर उन बालकों के सहित नतमस्तक होकर मुनि के चरणों में प्रणाम किया और बोली – हे ब्राह्मणआज मैं आपके दर्शन से धन्य हो गयी हूं। मेरे ये दोनों कुमार आपके सेवक हैं । आप मेरा उद्धार कीजिए । उस ब्राह्मणी को शरणागत जानकर मुनि ने मधुर वचनों द्वारा दोनों कुमारों को शिवजी की आराधना विधि बतलाई । तदान्तर वे दोनों बालक और ब्राह्मणी मुनि को प्रणाम कर शिव मंदिर में चले गए ।

उस दिन से वे दोनों बालक मुनि के कथनानुसार नियमपूर्वक प्रदोष काल में शिवजी की पूजा करने लगे । पूजा करते हुए उन दोनों को चार महीने बीत गए । एक दिन राजसुत की अनुपस्थिति में शुचिब्रत स्नान करने नदी किनारे चला गया और वहां जल-क्रीड़ा करने लगा। संयोग से उसी समय उसे नदी की दरार में चमकता हुआ धन का बड़ा सा कलश दिखाई पड़ा । उस धनपूरित कलश को देखकर शुचिब्रत बहुत प्रसन्न हुआ उस कलश को वह सिर पर रखकर घर ले आया कलश भूमि पर रखकर वह अपनी माता से बोला – हे माता,  शिवजी की महिमा तो देखो। भगवान ने इस घड़े के रुप में मुझे अपार सम्पति दी हैं

उसकी माता घड़े को देखकर आश्चर्य करने लगी और राजसुत को बुलाकर कहा -बेटे मेरी बात सुनो। तुम दोनों इस धन को आधा –आधा बांट लो माता की बात सुनकर शुचिब्रत बहुत प्रसन्न हुआ परन्तु राजसुत ने अपनी असहमति प्रकट करते हुए कहा – हे मांयह धन तेरे पुत्र के पुण्य से प्राप्त हुआ है । मैं इसमें किसी प्रकार का हिस्सा लेना नहीं चाहता। क्योंकि अपने किये कर्म का फल मनुष्य स्वयं ही भोगता हैं


इस प्रकार शिव पूजन करते हुए एक ही घर में उन्हे एक वर्ष व्यतीत हो गया । एक दिन राजकुमार ब्राह्मण के पुत्र के साथ बसन्त ऋतु में वन विहार करने के लिए गया । वे दोनों जब साथ-साथ वन से बहुत दूर निकल गएतो उन्हें वहां पर सैकड़ों गन्धर्व कन्यायें खेलती हुई दिखाई पडी ब्राह्मण कुमार उन गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़ारत देखकर राजकुमार से बोला – यहां पर कन्यायें विहार कर रही हैं इसलिए हम लोगों को अब और आगे नहीं जाना चाहिए |

क्योकि वे गन्धर्व कन्यायें शीघ्र ही मनुष्यों के मन को मोहित कर लेती हैं । इसलिये मैं तो इन कन्याओं से दूर ही रहूंगा परन्तु राजकुमार उसकी बात अनसुनी कर कन्याओं के विहार स्थल में निर्भीक भाव से अकेला ही चला गया । उन सभी गन्धर्व कन्याओं में प्रधान सुन्दरी उस समय आये हुए राजकुमार को देखकर मन में विचार करने लगी की कामदेव के समान सुन्दर रूप वाला यह राजकुमार कौन हैं उस राजकुमार के साथ बातचीत करने के उद्देश्य से सुन्दरी ने अपनी सखियों से कहा – सखियों तुम लोग निकट के वन में जाकर अशोकचम्पकमौलसिरी आदि के ताजे फूल तोड़ लाओ।

तब तक मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में यहीं रुकी रहूंगी । उस गन्धर्व कुमारी की बात सुनते ही सब सखियां वहां से चली गई सखियों के जाने के बाद वह गन्धर्व कन्या राजकुमार को स्थिर दृष्टि से देखने लगी। उन दोनों में परस्पर प्रेम का संचार होने लगा । गन्धर्व कन्या ने राजकुमार को बैठने के लिये आसन दिया । प्रेमालाप के कारण राजकुमार के सहवास के लिये वह सुन्दरी व्याकुल हो उठी और राजकुमार से प्रश्न करने लगी – “हे कमल के समान नेत्रों वालेआप किस देश के रहने वाले हैं आपका यहां आने का क्या कारन हुआ गन्धर्व कन्या की बात सुनकर राजकुमार ने जवाब दिया – “मैं विर्दभराज का पुत्र हूं। मेरे माता-पिता स्वर्गवासी हो चुके हैं । शत्रुओं ने मुझसे मेरा राज्य हरण कर लिया हैं ।” ।


राजकुमार ने अपना परिचय देकर उस गन्धर्व कन्या से पूछा ‘आप कौन है किसकी पुत्री हैं और इस वन में किस उद्देश्य से आई हैंआप मुझसे क्या चाहती हैं राजकुमार की बात सुनकर गन्धर्व कन्या ने कहा – “मैं विद्रविक नामक गन्धर्व की पुत्री अंशुमती हूं आपको देखकर आपसे बातचीत करने के लिये ही यहां पर सखियों का साथ छोड़कर रह गई हूं। मै गान विद्या में बहुत निर्पूण हूं। मेरे गान पर सभी देवांगनायें रीझ जाती हैं । मैं चाहती हूं कि आपका और मेरा प्रेम सदा बना रहे।इतनी बात कहकर उस गन्धर्व कन्या ने अपने गले का बहुमुल्य मुक्ताहार राजकुमार के गले में डाल दिया । वह हार उन दोनों के प्रेम का प्रतीक बन गया ।”

इसके पश्चात् राजकुमार ने उस कन्या से कहा- “हे सुन्दरी । तुमने जो कुछ कहावह सब सत्य है । लेकिन आप राजविहिन राजकुमार के पास कैसे रह सकेंगी आप अपने पिता की अनुमति के लिये बिना मेरे साथ कैसे चल सकेंगी?” राजकुमार की बात पर कन्या मुस्करा कर कहने लगी -“जो कुछ भी होमैं अपनी इच्छा से आपका वरण करुंगी । अब आप परसों प्रातः काल यहां आइयेगा। मेरी बात कभी झूठ नहीं हो सकती । गन्धर्व कन्या ऐसा कहकर पुनः अपनी सखियों के पास चली गई ।”


इधर वह राजकुमार भी शुचिब्रत के पास जा पहुंचा और अपना सारा वृतांत कह सुनाया । इसके बाद वे दोनों घर लौट गये घर पहुंचकर उन लोगों ने ब्राह्मणी को सब हाल कहाजिसे सुनकर वह ब्राह्मणी भी हर्षित हई फिर अगले दिन उसी वन में पहुचा। वहाँ पहुचकर उन लोगो ने देखा गन्धवराज अपनी पुत्री अंशुमती के साथ उपस्थित होकर प्रतीक्षा में बैठे हैं गन्धर्व ने उन दोनों कुमारों का अभिनन्दन करके उन्हे सुन्दर आसन पर बिठाया और राजकुमार से कहा – “मैं परसों कैलाशपुरी को गया था। वहां पर भगवान शंकर पार्वती सहित विराजमान थे।


उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर कहा – पृथ्वी पर राज्यच्युत होकर धर्मगुप्त नामक राजकुमार घूम रहा हैं। शत्रुओं ने उसके वंश को नष्ट -भ्रष्ट कर दिया है वह कुमार सदा ही भक्तिपूर्वक मेरी सेवा किया करता है । इसलिये तुम उसकी सहायता करोजिससे वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके। इसलिये मैं भगवान शंकर की आज्ञा से अपनी पुत्री अंशुमती आपको सौंपता हूं। मैं शत्रुओं के हाथ में गये हुए आपके राज्य को वापिस दिला दूंगा। आप इस कन्या के साथ दस हजार वर्षों तक सुख भोगकर शिवलोक में आने पर भी मेरी पुत्री इसी शरीर में आपके साथ रहेगी।” इतना कहकर गन्धर्वराज ने अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार के साथ कर दिया। दहेज में अनेक दास-दासियां तथा शत्रुओं पर विजय पाने के लिये गन्धर्वो की चतुरंगिणी सेना भी दी

राजकुमार ने गन्धर्वो की सहायता से शत्रुओं को नष्ट किया और वह अपने नगर में प्रवीष्ट हुआ । मंत्रियों ने राजकुमार को सिंहासन पर बैठाकर राज्याभिषेक किया। अब वह राजकुमार राज-सुख भोगने लगा । जिस दरिद्र ब्राह्मणी ने उसका पालन पोषण किया था उसे ही राजमाता के पद पर आसीन किया गया । वह शुचिब्रत ही उसका छोटा भाई बना । इस प्रकार प्रदोष व्रत में शिव पूजन के प्रभाव से वह राजकुमार दुर्लभ पद को प्राप्त हुआ । जो मनुष्य प्रदोष काल में अथवा नित्य ही इस कथा को श्रवण करता हैवह निश्चय ही सभी कष्टों से मुक्त हो जाता है और अंत में वह परम पद का अधिकारी बनता है ।

उघापन विधि :-प्रातः स्नानादि कार्य से निवृत होकर रंगीन वस्त्रो से मण्डप बनायें। फिर उस मण्डप में शिव-पार्वती की प्रतिमा स्थापित करके विधिवत् पूजन करें तदन्तर शिव-पार्वती के उद्देश्य से खीर से अग्नि में हवन करना चाहिए । हवन करते समय ॐ उमा सहित-शिवाये नमः मन्त्र से 108 बार आहुति देनी चाहिए । इसी ॐ नमः शिवाय के उच्चारण से शंकर जी के निमित आहुति प्रदान करें । हवन के अन्त में ब्राह्मण को दान देना चाहिए । ब्राह्मणों की आज्ञा पाकर अपने बंधु-बान्धवों को साथ लेकर भगवान् शंकर का स्मरण करते हुए व्रती को भोजन करना चाहिए । इस प्रकार उद्यापन करने से व्रती पुत्र-पौत्रादि से युक्त । होता है तथा आरोग्य लाभ पाता हैं । ऐसा स्कन्द पुराण में कहा गया है


सकट चौथ :-

(माघ कृष्ण चतुर्थी)


माघ कृष्ण चतुर्थी को सकट का त्योहार मनाया जाता है । इस दिन सकट हरण गणपति गणेश जी का पूजन होता है । इस व्रत को करने से सभी कष्ट दूर हो जाते है और समस्त इच्छाओ व कामनाओं की पूर्ति होती है। इस दिन स्त्रियां दिन भर निर्जल व्रत रखकर शाम को फलहार लेती है। दूसरे दिन सुबह सकट माता को चढ़ाये गये पूरी- पकवानों को प्रसाद रूप में ग्रहण करती है। तिल को भूनकर गुड़ के साथ कुट लिया जाता है । तिलकुट का बकरा भी बनाया जाता है। उसकी पूजा करके घर का कोई बच्चा तिलकुट के बकरे की गर्दन काट देता है । सबको इसका प्रसाद दिया जाता है । पूजा के बाद कथा सुनते है।


सकट चौथ व्रत कथा :-

(माघ कृष्ण चतुर्थी)


किसी नगर मे एक कुम्हार रहता था। एक बार उसने बर्तन बनाकर आँवा लगाया तो आँवा पका ही नही । हारकर वह राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगा । राजा ने राजपंडित को बुलाकर कारण पूछा तो राजपंडित ने कहा कि हर बार आँवा लगाते समय बच्चे कि बलि देने से आँवा पक जाएगा। राजा का आदेश हो गया । बलि आरम्भ हुई । जिस परिवार की बारी होती वह परिवार अपने बच्चो मे से एक बच्चा बलि के लिए भेज देता। इसी तरह कुछ दिनों बाद सकट के दिन एक बुढ़िया के लड़के की बारी आई । बुढ़िया के लिए वही जीवन का सहारा था। राजा आज्ञा कुछ नही देखती। दुःखी बुढ़िया सोच रही थी कि मेरा तो एक ही बेटा हैवह भी सकट के दिन मुझसे जुदा हो जाएगा ।

बुढ़िया ने लड़के को सकट की सुपारी और दूब का बीड़ा देकर कहा ” भगवान् का नाम लेकर आँवा मे बैठ जाना । सकट माता रक्षा करेंगी ।” बालक आँवा मे बिठा दिया गया और बुढ़िया सकट माता के सामने बैठ कर पूजा करने लगी। पहले तो आँवा पकने में कई दिन लग जाते थेपर इस बार सकट माता की कृपा से एक ही रात में आंवा पक गया था । सवेरें कुम्हार ने देखा तो हैरान रह गया । आँवा पक गया था । बुढ़िया का बेटा तथा अन्य बालक भी जीवित एवं सुरक्षित थे। नगर वासियों ने सकट की महिमा स्वीकार की तथा लड़के को भी धन्य माना । सकट माता की कृपा से नगर के अन्य बालक भी जी उठे।

No comments:

Post a Comment