आदित्य हृदय स्तोत्रं(Aditya Hriday Stotram):-भगवान रामजी युद्ध भूमि के हालात को देखकर मन ही मन में विचार करने लगे, वे युद्ध से सम्बंधित विचारों में खोए होते हैं।तब युद्ध को देखने आए देवताओं के साथ अगस्त्य ऋषिवर रामजी को विचारों में खोया देखा। तब वे उनके पास जाते हैं। तब उन्होंने भगवान रामजी से कहा कि-हे राम! मैं तुम्हें इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए बताया हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो। ऋषिवर अगस्त्य मुनि के द्वारा भगवान रामचन्द्रजी को दशानन रावण पर युद्ध में जीत हासिल करने के लिए वाल्मीकि रामायण के अनुसार "आदित्य हृदय स्तोत्रं" के बारे में बताया गया था।
श्री आदित्य हृदय स्तोत्रम् का विनियोग:-देवी-देवताओं के निमित संकल्प करने को विनियोग कहते हैं।
ऊँ अस्य आदित्यहृदय स्तोत्रस्य अगस्त्यऋषिः अनुष्टुप्छन्दः
आदित्यहृदयभूतो भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया
ब्रह्माविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः।
अर्थात्:-हे ब्रह्मस्वरूप! मुनिवर अगस्त्य ऋषि ने श्रीआदित्य हृदय स्तोत्रम् श्लोकों में मंत्रों की रचना की थी, जिसमें अनुष्टुप छंद हैं एवं आदित्यहृदयभूत भगवान हैं, ब्रह्मा देवता के रूप में हैं, जो कोई श्रीआदित्य हृदय स्तोत्रं के श्लोकों में वर्णित मंत्रों के द्वारा इनके देवता को याद करते हुए वांचन का संकल्प करता हैं, उसको सभी जगहों पर विजय, सभी तरह की सिद्धि, ज्ञान के क्षेत्र में सिद्धि और आने वाले विघ्नों से मुक्ति मिल जाती हैं।
पूर्व पीठिता:-आदित्य हृदय स्तोत्रम् के मन्त्रों का उच्चारण करने से पूर्व जो पाठ का वांचन होता हैं, उसे पूर्व पीठिता कहा जाता है। जो निम्नलिखित हैं-
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्।।१।।
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याबरवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा।।२।।
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे।।३।।
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्।।४।।
सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशनमायुर्वर्धनमुत्तमम्।।५।।
मूल स्तोत्रं:-आदित्य हृदय स्तोत्रम् के मन्त्रों का उच्चारण करने का मुख्य स्तोत्रं होता है, उसका वांचन करने पर ही उसकी प्रधानता होने से मूल स्तोत्रं कहा जाता है, जो इस तरह हैं-
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पुजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्।।६।।
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणांल्लोकान् पाति गभस्तिभिः।।७।।
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यापां पतिः।।८।।
पितरो वसवः साध्याः अश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वहिनः प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः।।९।।
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः।।१०।।
हरिदश्च सहस्त्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंSशुमान्।।११।।
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोSहस्करो रविः।
अग्निगर्भोsदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः।।१२।।
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुः सामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः।।१३।।
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजाः रक्तः सर्वभवोद् भवः।।१४।।
नक्षत्रग्रहताराणामाधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोस्तुते ते।।१५।।
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः।।१६।।
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नमः।।१७।।
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोस्तु ते।।१८।।
ब्राह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः।।१९।।
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः।।२०।।
तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोsभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे।।२१।।
नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः।।२२।।
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्।।२३।।
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभुः।।२४।।
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव।।२५।।
पूज्यस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगप्ततिम्।
एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि।।२६।।
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि।
एवमुक्ता ततोSग्सत्यो जगाम स यथागतम्।।२७।।
एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोSभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयताप्तवान्।।२८।।
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्।।२९।।
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम्।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेSभवत्।।३०।।
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनां परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति।।३१।।
।।इति आदित्य हृदयं स्तोत्रं सम्पूर्ण।।
आदित्य हृदयं स्तोत्रं के पाठन का महत्त्व और लाभ:-आदित्य हृदय स्तोत्रम् का नियमित रूप से वांचन करने पर निम्नलिखित लाभ मिलते हैं-
◆जीवन की समस्त तरह की परेशानियों से मुक्ति दिलाने में सहायक यह स्तोत्रम् होता हैं।
◆मनुष्य के मन अनेक तरह के विचार उत्पन्न होते हैं, जिससे मन तय नहीं कर पाता हैं, क्या करूँ या क्या नहीं करूँ इस तरह के विचारों से मुक्ति दिलाने में सहायक होता हैं।
◆मनुष्य के जीवन को जीवित रखने वाले हृदय में विकार उत्पन्न होने से बचाने में यह स्तोत्रम् सहायक होता हैं।
◆मनुष्य के द्वारा नियमित रूप से आदित्य हृदय स्तोत्रम् का वांचन करने पर शत्रुओं से सम्बंधित परेशानी से मुक्ति मिल जाती हैं।
◆इस स्तोत्रम् के वांचन करने पर नहीं बनने वाले कार्यों में सफलता भी मिल जाती हैं।
◆मनुष्य को नीति एवं धर्म के प्रति कार्यों में यह स्तोत्रम् रुचि उत्पन्न करता हैं।
◆इस स्तोत्रम् के वांचन से उम्र में बढ़ोतरी होती हैं।
◆मनुष्य को सभी तरह के सुख एवं जीवन में मंगल ही मंगल होता हैं।
◆मनुष्य के मान-सम्मान में वृद्धि होती हैं।
◆जीवनकाल में इस स्तोत्रम् का वांचन करते रहने पर जोश बढ़कर सब जगहों पर विजय मिल जाती है।
◆पिता के साथ मधुर सम्बन्ध इस स्तोत्रम् के वांचन करते रहने पर मिलता हैं।
◆चक्षुओं के विकारों में राहत मिलती हैं।
◆राजकीय पद की प्राप्ति में यह स्तोत्रम् सहायक होता हैं।
◆कोर्ट-कचहरी में चलने वाले मामलों में राहत दिलाने में यह स्तोत्रम् सहायक होता हैं।
◆मनुष्य को हड्डियों से सम्बंधित विकारों से मुक्ति दिलाने में यह स्तोत्रम् सहायक होता हैं।
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