Pages

Monday 16 November 2020

ग्रहों के वैदिक शाखाधिप

ग्रहों के वैदिक शाखाधिप :- प्राचीन काल से ही भारतीय समाज वेदों की शाखा- परंपरा में बाँटा हैं। शाखाओं का स्वामी निम्नांकित है


वेंदो के स्वामी ग्रह 


शाखाशाखाधिप
ऋगवेदगुरु
यजुर्वेदशुक्र
सामवेदमंगल
अथर्ववेदबुध


ग्रहों के वैदिक शाखाधिप का उपयोग निम्ननलिखित है
* जातक की जन्म कुंडली से ग्रह के बलानुसार यह देखा जाता है कि वह किस वेद में पारंगत हो सकता हैं।

*प्रश्नकुंडली में जिस शाखा में से जिस ग्रह का सम्बंध बन रहा है, उससे सम्बन्धित शाखा का व्यक्ति भी प्रश्न से सम्बंधित व्यक्ति होगा।

ग्रहों के रत्न :- सूर्यादि नवग्रहों के रत्न निम्नानुसार हैं

नवग्रहों के रत्न


ग्रहोंरत्न
सूर्यमाणिक्य
चन्द्रमामोती
मंगलमूँगा
बुधपन्ना
गुरुपुखराज
शुक्रहीरा
शनिनीलम
राहुगोमेद
केतुलहसुनिया

 ग्रहों के प्रतिकूल : होने पर उसके रत्न के धारण करने से अथवा दान करने से उनकी शांति होती है।

ग्रहों की दिशाएँ : सूर्यादि अष्टग्रहों की दिशाएँ निम्नाकिंत हैं

ग्रहों की दिशाएँ

ग्रहोंदिशाएँ
सूर्यपूर्व
चन्द्रमावायव्य(उत्तर-पश्चिम)
मंगलदक्षिण
बुधउत्तर
गुरुईशान (उत्तर-पूर्व)
शुक्रआग्नेय(दक्षिण-पूर्व)
शनिपश्चिम
राहुनैऋत्य(दक्षिण-पश्चिम)

*अयंगर के अनुसार ऊध्र्व दिशा का स्वामी केतु और पाताल दिशा का स्वामी गुलिक होता है।

ग्रहों की दिशाओं का प्रयोजन-: केंद्र में स्थित ग्रह के आधार पर सूतिका ग्रह का द्वार का ज्ञान, चोरी गई वस्तु एवं चोर आदि के गमन के लिए हैं।

* ग्रह जन्म कुंडली में अपनी दिशा के भाव में बली होता हैं। 
  
ग्रहों से सम्बंधित वस्त्र :- प्रसव के समय वस्तुओं का ज्ञान,चोरी आदि के प्रश्न में बलवान ग्रह से वस्त्र का ज्ञान आदि के उद्देश्य से जातक गर्न्थो में ग्रहों से सम्बन्धित वस्त्रों का उल्लेख मिलता हैं।ग्रहों से सम्बंधित वस्त्र निम्नाकिंत हैं

ग्रहों से सम्बंधित वस्त्र

ग्रहवस्त्रवस्त्र
सूर्यमोटा कपड़ा लाल
चन्द्रमा  नया एवं सुंदर वस्त्र उज्जवल वस्त्र
मंगलजला हुआ वस्त्रलाल वस्र
बुधजलहत या गीला कपड़ा कृष्ण वस्त्र
गुरु न नया, न पुराना कपड़ा पीला वस्त्र
शुक्र मजबूत कपड़ा रेशमी वस्त्र
शनि फटा- पुराना कपड़ा चित्र-विचित्र

 * राहु का वस्त्र अनेक रंग की गुदड़ी या थेगली लगा वस्त्र या झोली जिसे सन्यासी धारण करते हैं।

*केतु का वस्त्र छिद्र युक्त वस्त्र हैं।

ग्रहों के निवास स्थान-:सूर्यादि ग्रहों के विचरण आदि स्थानों के साथ- साथ फ़लित ग्रन्थों में उनके निवास-स्थान के बारे में भी उल्लेख मिलता हैं। ये स्थान ग्रहों के अनुसार निम्नाकिंत हैं।

ग्रहों के निवास स्थान

ग्रहनिवास-स्थान
सूर्यदेवालय, शिवालय, बाहर खुला हुआ प्रकाशमान स्थान,मरुत देश,पूर्व दिशा। 
चन्द्रमाजलाशय,वधूकक्ष,औषधालय, मधुस्थान,वायव्य दिशा,दुर्गा माँ का मंदिर।
मंगलअग्निशाला,चोर का एवं म्लेच्छ जाति का स्थान,युद्धभूमि,दक्षिण दिशा
बुधक्रीड़ाभूमि, विद्वानों का स्थान, विष्णु मंदिर, विहार,गणना करने वाला,उत्तर दिशा।
गुरुकोषागार, पीपल का वृक्ष,देवालय,ब्राह्मण का निवास स्थान, भण्डार,ईशान दिशा
शुक्रशयनागार,वेश्यावीथि,नृत्यालय,शयनकक्ष, आग्नेय दिशा।
शनिकूड़ा-करकट फेंकने का स्थान, ऊसर भूमि,अशौच स्थान, शास्ता का मंदिर, निम्नश्रेणी के लोगों का निवास-स्थान, पश्चिम दिशा।
राहुघर के कोने,दीमक का स्थान, सर्प की बांबी,अंधकारयुक्त बिल,नैऋत्य दिशा।
केतुघर के कोने,दीमक का स्थान, सर्प की बांबी,अंधकारयुक्त बिल,नैऋत्य दिशा।

   ग्रहों के निवास स्थान का उपयोग-: प्रश्न कुंडली में  खोई हुई वस्तु की जानकारी एवं चोर आदि के छिपने के स्थान को जानने के लिए किया जाता हैं।

ग्रहों के लोक-:मुख्यतः पाँच लोक जिनमें मृत्युलोक (पृथ्वीलोक),पितृलोक या मनुष्यलोक,पाताललोक,स्वर्गलोक या देवलोक एवं नरकलोक हैं। जिनके स्वामीग्रह निम्न हैं।

ग्रहो के लोक

ग्रहलोक
गुरुदेवलोक( स्वर्गलोक)
चन्द्रमा और शुक्रपितृ लोक 
सूर्य और मंगलपृथ्वीलोक
बुधपाताल लोक
शनिनरकलोक

ग्रहों के वर्ण (जाति)-: भारतीय समाज वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत विभक्त है। जिनमें वर्णो के स्वामी को ग्रह के अंतर्गत माना गया है। ग्रहों के वर्ण निम्नलिखित हैं: 

  ग्रहों के वर्ण (जाति)
ग्रहवर्ण जाति स्थान
सूर्यक्षत्रिय
चन्द्रमाशुद्र
मंगलक्षत्रिय
बुध शुद्र 
 गुरु ब्राह्मण 
शुक्रब्राह्मण
शनिवर्ण शंकर एवं अन्त्यज
राहुचाण्डाल एवं मलेच्छ कुलोत्पन्न
केतुवर्ण शंकर

 ग्रहों के संचार स्थान-:का अर्थ है कि ग्रह सामान्यतः कहाँ विचरण करते है?सूर्यादि नवग्रहों के विचरण स्थान निम्नानुसार है:

ग्रहों के संचार -स्थान
ग्रहसंचार स्थान
सूर्यपर्वत-वन
चन्द्रमाजल
मंगल पर्वत-वन
बुध विदुषालय-ग्राम 
गुरु विदुषालय-ग्राम 
शुक्रजल
शनिपर्वत-वन
राहुपर्वत-वन
केतुपर्वत-वन
 *जातक की कुंडली में जो ग्रह बली होता है और जिसका संबंध लग्न-लग्नेश से होता है, उस ग्रह के स्थानों पर जातक  विचरण करना पसंद करता है।

ग्रहों की वयावस्था-:का आश्रय यह है कि जातक के जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में किस ग्रह का शुभाशुभ प्रभाव  होगा। सूर्यादि नवग्रहों की वयावस्था निम्नानुसार हैं:

  ग्रहों की वयावस्था(वर्षों में)-:

ग्रहोंवयावस्था वर्षों में
सूर्य50 वर्ष
चन्द्रमा70
मंगलबालक(शिशु)
बुधकुमार(किशोर)
गुरु30 वर्ष
शुक्र16 वर्ष
शनि80-100 वर्ष
राहु80-100 वर्ष
केतु80-100 वर्ष

*प्रश्न कुंडली में लग्न में जो ग्रह स्थित हैं अथवा जो ग्रह से संबंधित होकर बलवान है, उस ग्रह की वयावस्था के समकक्ष आयु का व्यक्ति प्रश्न के उत्तर से संबंधित हैं।

  ग्रहों की धातु-मूल-जीव संज्ञा-: राशियों की तरह होती है।जो निम्नानुसार है:

ग्रहोंसंज्ञाऐ
सूर्यमूल
चन्द्रमाधातु
मंगलधातु
बुधजीव
गुरुजीव
शुक्रमूल
शनिधातु
राहुधातु
केतुजीव

 *जन्म कुंडली या प्रश्न कुंडली जो ग्रह बलवान या शुभ भावेश हैं, उससे संबंधित धातु आदि से जातक या प्रश्नकर्ता को लाभ होता है।

  ग्रहों के द्रव या धातु-:निम्नलिखित है:

 ग्रहों के द्रव या धातु

ग्रहोंद्रव्य
सूर्यताम्र या स्वर्ण
चन्द्रमाचाँदी
मंगलसोना या ताम्र
बुधसीसा
गुरुसोना
शुक्रचाँदी
शनिलोहा
राहुसीसा
केतुनीलमणी

  ग्रहों के द्रव या धातु-: का उपयोग निम्नानुसार हैं:

 *धातु की चोरी आदि के जानने में, जिस ग्रह की दशा है, उस द्रव्य से लाभ या हानि होने आदि में इनका उपयोग किया जाता है।

 *जो ग्रह पीड़ित हैं एवं अशुभ फलदायक हैं, उससे संबंधित द्रव्य का दान करने से अथवा धारण करने से ग्रहदोष की शांति होती हैं।

   ग्रहों से शरीर पर चिन्ह-:शरीर पर तिल,मस्सा आदि प्राकृतिक चिन्ह एवं घाव आदि के कृत्रिम चिन्ह ग्रह जनित माने जाते हैं। वे निम्नलिखित हैं।:

ग्रहों से शरीर पर चिन्ह

ग्रहवे अंग जिनमें चिन्ह होगा
सूर्यकटि का दाहिना भाग
चन्द्रमासिर का बाँया भाग
मंगलपीठ का दाहिना भाग
बुधदायीं कुक्षि
गुरुदायाँ कन्धा
शुक्रचेहरे का बायाँ भाग
शनिपैर


ग्रहों के अन्न-:खाद्यान्नों को भी ग्रहों के प्रतिनिधित्व में माना गया है। ग्रहों के अन्न निम्नलिखित हैं:

ग्रहों के अन्न

 

ग्रह अन्न
सूर्यगेहूँ
चन्द्रमाचावल
मंगलदाल
 बुधमूँग
 गुरुचना
 शुक्रश्याम मूँग
 शनितिल
 राहु
उड़द
 केतु
कुल्थी

ग्रके अन्न का उपयोग-:न केवल होरा,ज्योतिष,बल्कि प्रश्न ज्योतिष एवं संहिता ज्योतिष में भी किया जाता हैं।

  ग्रहों से ईश्वरावतार-:राक्षसों के बलनाश के लिए, देवों के बल को बढ़ाने के उद्देश्य से और धर्म की स्थापना के लिए ग्रहों से शुभप्रद अवतार हुए हैं।ये निम्नलिखित हैं:

ग्रह ईश्वरावतार
सूर्यश्री राम
चन्द्रमाश्री कृष्ण
मंगलनृसिंह
 बुधबुद्ध
 गुरुवामन
 शुक्रपरशुराम
 शनिकूर्म
 राहु
वराह
 केतु
मत्स्य

*इनके अतिरिक्त जितने अवतार हैं, वे भी ग्रहों से अवतीर्ण हुए हैं।ये अवतार अपने-अपने कार्यों को सम्पन्न करके सूर्यादि ग्रहों में मिल जाते हैं।

  ग्रहों की स्थिरादी संज्ञाएँ-:सूर्यादि सप्तग्रहों की स्थिरादी संज्ञाएँ निम्नलिखित हैं:

  ग्रहों की स्थिरादी संज्ञाएँ

ग्रहसंचार स्थान
सूर्यस्थिर
चन्द्रमाचर
मंगलउग्र
 बुधमिश्र
 गुरुमृदु
 शुक्रलघु
 शनिसुतीक्ष्ण

ग्रहों की स्थिरादी संज्ञाएँ का उपयोग-: 

*लग्नेश, लग्न में  स्थित ग्रह एवं लग्न को देखन वाले ग्रह जिस प्रकृति के होते हैं। जातक की प्रकृति भी उसके समान होती है।

*इसके अतिरिक्त दशानाथ की प्रकृति के अनुरूप भी जातक की प्रकृति हो जाती हैं।


ग्रहों के गुण स्थान-: गुण तीन तरह के सत्व, रजस एवं तमस होते हैं। ग्रहों के गुण स्थान निम्नाकिंत हैं:

ग्रहों के गुण 

ग्रह गुण
सूर्यसत्व
चन्द्रमासत्व 
मंगलतमस
 बुधरजस
 गुरुसत्व
 शुक्ररजस
 शनितमस
 राहु
तमस

ग्रहों के गुण-: जन्मकुंडली में जो ग्रह बलवान होता है,उस ग्रह के गुण के अनुरूप जातक का स्वभाव होता है।

*  सूर्य जिस राशि के त्रिशांश में होता है, उसके स्वामी गुणों के समान जातक के गुण होते हैं।

 * यदि जातक सतोगुणी हो, तो दयावान, सत्यवादी, ब्राह्मण और देवताओंं की भक्ति करने वाला होता है।

 * यदि जातक रजोगुणी हो, तो कवि एवं कलाकार, स्त्रियों के संग रहने की प्रवृत्ति वाला और पराक्रमी होता है।

* यदि जातक तमोगुणी हो, तो मूर्ख, आलसी,क्रोधी दूसरों की निंदा करने वाला एवं वंचित होता है और यदि एक से गुणों अधिक  के ग्रह बलवान हो, तो जातक मिश्रित गुण- स्वभाव वाला होता है।

 ग्रहों की प्रकुति-: आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य की तीन  प्रकुति 1.वात,2.पित्त3.कफ या श्लेष्मा होती हैं।
 भारतीय ज्योतिष में ग्रहों की प्रकृति इसी आधार पर बताई गई है, जो निम्नांकित है:

ग्रहों की प्रकुति-:
ग्रहप्रकुति
सूर्यपित्त
चन्द्रमावायु-श्लेष्मा(कफ)
मंगलपित्त
 बुधवात- पित्त -कफ (त्रिदोष)
 गुरुश्लेष्मा (कफ)
 शुक्रवात-श्लेष्मा(कफ)
 शनिवात

*जन्म कुंडली में  जो  ग्रह  बलवान  होता है,उसकी प्रकृति के अनुसार ही जातक की प्रकृति होती है।

*  जातक जिस ग्रह  की दशा के प्रभाव में होता है  उस ग्रह की प्रकृति  से  जन्य रोगों  से  ग्रस्त होता है।

 * निर्बल ग्रह एवं अशुभ भावेश अपनी  दशावधि में अपनी प्रकृति (दोष) रोगों से  पीड़ित करते हैं।

* जातक जिस रोग  से पीड़ित हैं, उस रोग की प्रकृति की प्रधानता  वाले  ग्रह के मंत्रों का जप आदि करने से रोगों में राहत प्राप्त होती हैं। 

ग्रहों के लिंग-:को तीन भागों में पुल्लिंग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसक आदि में बाँटा गया हैं। 

1.पुल्लिंग ग्रहों में-: सूर्य पिता, मंगल भ्राता एवं गुरु पुत्र होता हैं।

2. स्त्रीलिंग ग्रहों में-: चन्द्रमा माता एवं शुक्र पत्नी होता हैं। राहु स्त्रीलिंग होता हैं।

3.नपुंसक ग्रहो में-: बुध एवं शनि होता है एवं केतु भी होता हैं।

नपुंसक ग्रह भी दो प्रकार के 1.स्त्रीलिंग नपुंसक ग्रह-:में स्त्री लक्षण जैसे स्तन आदि होते है। बुध ग्रह स्त्री गुण प्रधान नपुंसक ग्रह होता है।

2.पुरुष नपुंसक ग्रह-:में पुरुष लक्षण दाढ़ी,मूँछ आदि होते है।शनि ग्रह पुरुष गुण प्रधान ग्रह हैं।जो निम्नाकिंत है:

 ग्रहों के लिंग

 

ग्रहलिंग
सूर्यपुल्लिंग
चन्द्रमास्त्रीलिंग
मंगलपुल्लिंग
 बुधनपुंसक
 गुरुपुल्लिंग
 शुक्रस्त्रीलिंग
 शनिनपुंसक
 राहु
स्त्रीलिंग
 केतुनपुंसक
 ग्रहों के लिंग का उपयोग-: जन्मकुंडली प्रश्न कुंडली दोनों में  उपयोग होता है।
 *जन्म कुंडली में जो ग्रह बलवान हो अथवा जो ग्रह लग्नेश या जन्म राशीश हो अथवा जो ग्रह लग्न स्थित हो,उसके लिंग के अनुसार जातक का स्वभाव होता है।
 *लग्न नवांश का स्वामी भी जातक के स्वभाव को निर्धारित करता है।
*पंचम भाव का स्वामी या पंचम भाव में स्थित ग्रह जातक की संतान के लिंग निर्धारण का करते हैं।
 *प्रसव के समय माता- पिता को जिस ग्रह की दशा होती है उस ग्रह के लिंग की संतान होती है।
 *लाभदायक ग्रह की दशा विद्यमान होने पर दशानाथ के लिंग के अनुरूप लिंग वाले व्यक्ति से जातक को लाभ होता है। 
*प्रश्न कुंडली में संतान से संबंधित प्रश्न अथवा लाभ या चोर आदि के प्रश्न के संबंध मेंं भी संबंधित व्यक्ति का लिंग ग्रहों  के लिंग के आधार पर निर्धारित किया जाता है।

  ग्रहों के तत्त्व-:पंचमहाभूतों या पंच तत्वों (पृथ्वी, जल,अग्नि( तेज) वायु और आकाश) के आधार पर ग्रहों को पंचतत्वों में बाँटा गया है।जो निम्नाकिंत हैं:

ग्रहों के तत्त्व-
ग्रहतत्त्व
सूर्यअग्नि(तेज)
चन्द्रमाजल
मंगलअग्नि
शुक्रपृथ्वी
शनिआकाश
राहुजल
केतुवायु
ग्रहो के तत्त्वों का उपयोग-: जन्म के समय या गोचर में जो ग्रह बली होता है, उस ग्रह की प्रकृति जातक की होती है।
*अधिक ग्रहों के बली होने पर मिश्र स्वभाव होता है।
1.पृथ्वी तत्त्व गुण-: की प्रधानता वाला जातक कर्पूर एवं कमल के समान गंध वाला, भोगी,स्थिर सुख से युक्त, बली,माफ् करने वाला तथा शेर के समान दहाड़ मारने वाला होता है।

2.जल तत्त्व गुण-: जल प्रकृति वाला जातक कांति युक्त, वजन वहन करने वाला, मीठा बोलने वाला, राजदरबारी, अधिक मित्र से युक्त, कोमल और विद्वान होता है।
3.अग्नि तत्त्व गुण-:अग्नि प्रकृति वाला व्यक्ति भूख से पीड़ित, चंचल, बहादुर, कमजोर, अधिक भूखा, तेज,गोरे रंग का एवं अभिमानी होता है।
4 .वायु तत्त्व गुण-:वायु प्रकृति वाला व्यक्ति अधिक क्रोध करने वाला, गोरे रंग का, घूमने वाला, शत्रु को जीतने वाला  एवं दुबले पतले शरीर वाला होता है।
5.आकाश तत्त्व गुण-:आकाश प्रकृति वाला व्यक्ति शब्द और अर्थ को जाने वाला, राजनीति का अच्छा ज्ञान रखने वाला एवं अधिक लंबा कद वाला होता है।
 *जातक पर महादशा नाथ की छाया-: रहती हैं। 
 रुद्रभट के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु और आकाश के गुण क्रमशः गंध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द लक्षणों से क्रमशः नासिका, मुख या जिव्हा,नेत्र,त्वचा एवं कानों से अभिव्यञिजत होती हैं। जिस ग्रह की दशा हो, उससे संबंधित वस्तु से लाभ होता है। जिस व्यक्ति को ज्ञात नहीं होता है वह किस दशा के अधीन है, उसके लिए छाया के आधार पर दशानाथ का ज्ञान हो जाता है।
पृथ्वी की छाया-: व्यक्ति के दाँत, त्वचा,नख,रोम एवं  सिर के बाल चिकने एवं चमकदार हो तथा शरीर से सुगंध निकलती हो, तो पृथ्वी तत्व की छाया जाननी चाहिए। पृथ्वी की छाया पुष्टि, धन लाभ और प्रतिदिन धर्म में प्रवृत्ति कराती हैं।
 जल की छाया-: श्वेत,स्निग्ध,नीली, मित्रों को प्रिय लगने वाली होती है। यह छाया सौभाग्य अक्रूरता, सुख और समस्त कार्य को सिद्ध करने वाली तथा माता के समान हित करने वाली होती है।
 अग्नि की छाया-: क्रोधशीला,किसी से तिरस्कार को नहीं पाने वाली,कमल,अग्नि और सोने के समान कांति वाली तथा तेज, पराक्रम और प्रताप  से युक्त होती हैं।अग्नि की छाया प्राणियों की जय के लिए होती हैं तथा अतिशीघ्र ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि देने वाली होती हैं।
 वायु की छाया-:मलीन, रूखी, काली एवं दुर्गंध से युक्त होती हैं। यह छाया वध,बंधन,रोग,लाभ में अवरोध एवं धन का नाश करने वाली होती है।
 आकाश की छाया-: स्फटिक के समान कांति वाली होती है। यह छाया भाग्य युक्त,अत्यधिक उदार,श्रेष्ठ कार्यों की निधि के समान एवं स्वच्छ रंग वाली होती हैं।
पृथ्वी की छाया-: जब जातक के शरीर से सुंगध निकले या चन्दानुलेपन की अधिकता हो,तो पृथ्वी तत्व की छाया माननी चाहिए और वह बुध की महादशा के प्रभाव में होता है।
  यदि जातक के भोजन में मधुर  (मसालेदार रुचिकर) रस की अधिकता हो,तो चंद्र-शुक्र जनित छाया जाननी चाहिए। यदि जातक रूपवान्, दर्शनीय, तेजयुक्त हो, तो सूर्य या मंगल की आग्नेय छाया जाननी चाहिए।
 जब जातक का शरीर स्पर्श में कोमल हो अथवा स्त्री के स्तन के स्पर्श की अभिरुचि रखता हो, तो शनि की वायवी छाया माननी चाहिए। जब जातक की वाणी दूसरों कानों को अच्छी लगने वाली हो या जातक स्वयं गायन-वादन आदि के सुनने में विशेष रुचि रख रहा हो,तो यह जानना चाहिए कि वह गुरु की या बृहस्पति की आकाशीय छाया से युक्त हैं।
ग्रहों की शुष्कादि संज्ञाएँ-:ग्रहों की शुष्कादि संज्ञाएँ आर्द्र(सजल),शुष्क(निर्जल)और आर्द्र(सजल)एवंशुष्क(निर्जल)
तीन  हैं। जो निम्नाकिंत हैं:
1.आर्द्र ग्रह या सजल ग्रह-:चन्द्रमा,शुक्र।
2शुष्क ग्रह या निर्जल ग्रह-:सूर्य,मंगल, शनि।
3आर्द्र ग्रह या सजल ग्रह एवं शुष्क ग्रह या निर्जल ग्रह-:बुध,गुरु। 
ग्रहों की शुष्कादि संज्ञाएँ का उपयोग-:निम्नाकिंत हैं:
*यदि लग्न या लग्नेश में शुष्क राशि एवं शुष्क ग्रह होने पर जातक दुबला-पतला होगा। 
*यदि लग्न या लग्नेश में आर्द्र राशि एवं आर्द्र ग्रह होने पर जातक हष्ट-पुष्ट होगा।

  ग्रहों के राजपद-:निम्नलिखित हैं:

ग्रहों के राजपद
ग्रहराजपद
सूर्यराजा
चन्द्रमारानी
मंगलसेनापति और दण्डनायक
 बुधराजकुमार(युवराज)
 गुरुमंत्री
 शुक्रमंत्री
 शनिसेवक
राहुसेना
केतुसेना

ग्रहों के राजपद का उपयोग-:निम्नलिखित 
*जन्म के समय जो ग्रह बलवान हो,वह ग्रह जातक को अपने अनुरूप बनाता है।
*दो-तीन ग्रह बलवान हो,तो जातक में उतने ही गुण होते हैं।
* जन्म कुंडली में लग्न- लग्नेश का संबंध जिस ग्रह से हो, तो  उस ग्रह के राजपद का गुण जातक में होता है।
* जन्म कुंडली में भाग्य-भाग्येश ,कर्म- कर्मेश,आय-आयेश से जो ग्रह सम्बन्ध बनाता है,उससे सम्बन्धित राजपद से क्रमशः भाग्योदय, कर्म क्षेत्र में सहायता एवं आय प्राप्त सहयोग मिलता है।
*प्रश्नकुंडली में जो ग्रह बलवान और उपचय भावों में हो, उस ग्रह से सम्बंधित राजपद से कार्य में सहायता मिलती हैं।

  ग्रहों का प्राणिजगतीय स्वरूप-: भी माना गया है, जो निम्नाकिंत हैं:

ग्रह प्राणी
सूर्यपक्षी
चन्द्रमासरीसृप
मंगलचतुष्पद
 बुधपक्षी
 गुरुद्विपद
 शुक्रद्विपद
 शनिचतुष्पद


ग्रहों का उदय प्रकार-:तीन  प्रकार का बताया गया हैं।जो निम्नलिखित है:
1.पृष्ठोंदय ग्रह-:1.सूर्य,2.मंगल,3.शनि,एवं 4.राहु।
2.शीर्षोदय ग्रह-:1.चन्द्रमा,2. बुध एवं 3.शुक्र।
3.उभयोदय ग्रह-:1.गुरु।

  

ग्रहों के रस-: जातक को किस रस का खाना अधिक पसंद होता है। इसकी जानकारी जन्म कुंडली में द्वितीय भाव में स्थित ग्रह अथवा उस भाव पर दृष्टि डालने वाले ग्रह या उस भाव के स्वामी से संबंधित प्राप्त होती हैं। ग्रहों के रस निम्नानुसार है।

ग्रहों के रस
ग्रहरस
सूर्यकटु
चन्द्रमालवण
 मंगलतिक्त
बुधमिश्रित
गुरुमधुर
शुक्रअम्ल
 शनिकषाय
ग्रहों के रस का उपयोग-:सन्धिगत लग्न की स्थिति में लग्न का निर्धारण करने के लिए किया जाता है।

गहों के रंग-: जन्म कुंडली अथवा प्रश्नकुंडली में लग्नस्थ या बलवान ग्रह का रंग जो रंग होता है, वही रंग जातक या प्रश्न से संबंधित व्यक्ति का होता है। जातक ग्रन्थों में ग्रह के रंग का उल्लेख मिलता है। जो के रंग निम्नांकित है

ग्रह का रंग
ग्रहरंग
सूर्यलाल या ताम्र
चन्द्रमाश्वेत
मंगलअधिक लाल
 बुधहरा
 गुरुपीला या स्वर्ण के समान
 शुक्रश्वेत या चितकबरा
 शनिकाला या नीला
 राहु
धूम्र
 केतु
विचित्र द्युति
 ग्रहों के रंग का उपयोग-:प्रश्नकुंडली में खोई हुई वस्तु का निर्धारण करने के लिए ग्रह के रंंग का निर्धारण किया जाता है। 
*ग्रह जिस राशि में स्थित होता है, उस राशि के रंग एवं स्वंय के रंग का मिला-जुला फल प्रदान करता है।
 *यदि ग्रह अपनी राशि या नवांश में स्थित हो, तो अपने वर्ण के अनुसार फ़ल प्रदान करता है, इसके विपरीत अन्य ग्रहों की राशि या नवांश में स्थित होने पर वह राशि के आधार पर मिश्रित वर्ण का द्योतक होता हैं।
ग्रहों के अधिदेवता-:नवग्रहों के अधिदेवता बताएँ गये हैं। जो निम्नाकिंत हैं।:
ग्रहों के अधिदेवता
ग्रहअधिदेवता
सूर्यअग्नि, रुद्र (शिव), सूर्य देव
चन्द्रमाजल, अम्बा, पार्वती, शिव
मंगलकार्तिकेय एवं हनुमान
बुधविष्णु, श्री गणेश
गुरुविष्णु, इन्द्र, ब्रह्मा
शुक्रइन्द्राणी, लक्ष्मी, दुर्गा
शनियम,  हनुमान, ब्रह्मा
राहुसर्प, सरस्वती
केतुब्रह्मा, श्री गणेश, भैरव
ग्रहों के अधिदेवता का उपयोग-:सूर्यादि ग्रह का जो देवता  हैं, उसी देवता की पूजा उसके मन्त्र से करके उसी दिशा में,जिस दिशा का वह स्वामी यात्रा करने से शत्रु को जल्दी पराजित कर सुवर्ण, रत्न, धन आदि का लाभ होता है। *इनके अलावा ग्रहों के  देवता कहे गए हैं, उनकी पूजा की जाए।
* चोरी आदि के प्रश्न के संबंध  में  निर्मित  प्रश्न कुंडली में  जो ग्रह  बलवान  है  उस देवता  के नाम  के  पर्यायवाची  नाम वाला  व्यक्ति चोर  आदि होगा। 
*यात्रा करते समय  जिस दिशा में  यात्रा हो रही हैं,उस दिशा  से संबंधित  ग्रह के देवता  की पूजा करनी चाहिए। 
ग्रहों की ऋतु-: भारतीय फ़लित ज्योतिष में सप्तग्रहों को षड् ऋतुएँ से सम्बंधित बताया गया हैं। जो निम्नाकिंत हैं:
ऋतुओं के स्वामीग्रह
स्वामीग्रहऋतु
शुक्रबसन्त
सूर्य,मंगलग्रीष्म
चन्द्रमावर्षा
बुधशरद्
गुरुहेमन्त
शनिशिशिर

 ग्रहों की ऋतु का उपयोग-: जन्म कुंडली के लग्न में जो ग्रह स्थिति को हो, उससे संबंधित ऋतु जानी चाहिए।

* लग्न में शुक्र आदि ग्रहों के द्रेष्काण होने से भी ऋतुओं के बारे में जाना जाता है।

*जन्म कुंडली या प्रश्न कुंडली की लग्न में जो ग्रह स्थित हैं उसके आधार पर ऋतु जाननी चाहिए।

* यदि जन्म कुंडली या प्रश्न कुंडली कि लग्न में कोई ग्रह स्थित ना हो, तो उस स्थिति में जिस लग्न ग्रह का द्रेष्काण हो अर्थात द्रेष्काण वर्ग में लग्न जिस राशि की हो, उस के आधार पर ऋतु जाननी चाहिए।

* नष्टजातक में इनका उपयोग जातक के जन्म की ऋतु जानने के लिए किया जाता है।

ग्रहों से अभिव्यक्त कालांग-: 'नष्टजातक' एवं :प्रश्न ज्योतिष' में ग्रहों से संबंधित अभिव्यक्त समयावधि के बारे में बताया गया है। जो निम्नांकित हैं:

ग्रहों से अभिव्यक्त कालांग
ग्रहकालांग
 सूर्य अयन
चन्द्रमामुहूर्त दो घटी क्षण
मंगलदिन वार
बुधऋतु
गुरुएक मास
शुक्रपक्ष
शनिवर्ष
राहुदो मास
केतुतीन मास
ग्रहों से  से  अभिव्यक्त  समयावधि उपयोग-;  शत्रुओं से विजय, गर्भ  अथवा  कार्यों के प्रश्न में  लग्न  के स्वामी  का  जिस कालांग पर अधिकार हैं, उस अवधि में कार्य  की  सिद्धि  प्राप्त होगी।

ग्रहों से उत्पन्न वृक्ष-:ग्रहों से उत्पन्न वृक्षों को बताई गया है। जो निम्नलिखित हैं:
ग्रहों से उत्पन्न वृक्ष
ग्रहवृक्षोत्पत्तिसम्बन्धित वृक्ष
सूर्यस्थूल वृक्ष बड़े और सुढृढ़ वृक्ष
चन्द्रमादुग्ध वाले वृक्षलता,दूध वाले पुष्प वाले एवं औषधी वाले वृक्ष
मंगलकटु वृक्षकाँटेदार वृक्ष
बुधफलरहित वृक्षफलविहीन वृक्ष
गुरूफलदार वृक्षफलदार वृक्ष
शुक्रपुष्प वाले वृक्षलता,दूध वाले एवं पुष्प वाले वृक्ष
शनिकुत्सित नीरस वृक्षकाँटेदार रसविहीन एवं निर्बल वृक्ष
 राहु ---
झाड़ियाँ, साल के वृक्ष
 केतु ---झाड़ियाँ के वृक्ष

ग्रहों के प्रदेश-:नवग्रहों का सम्बन्ध किस प्रदेश से या किस प्रदेश पर अधिकार हैं। जो निम्नांकित हैं:

ग्रहप्रदेश
सूर्यकलिंग
चन्द्रमायवन
मंगलउज्जैन
बुधमगध
गुरुसिन्धु
शुक्रसमतट
शनिसौराष्ट्र
राहुद्रविड़
केतुद्रविड़
  ग्रहों के प्रदेश का उपयोग-: जन्म कुंडली में भाग्येश,कर्मेश एवं आयेश में जो बली हो, उस ग्रह के प्रदेश में जातक को व्यापार आदि से  लाभ की प्राप्ति होती हैं ।
*जन्म कुंडली में जो ग्रह कमजोर हैं, उससे संबंधित प्रदेश में जातक को हानि का सामना करना पड़ता है। 

No comments:

Post a Comment